शामे ग़म तुझसे जो डर जाते हैं , सब गुजर जाये तो घर जाते हैं
यू नुमायाँ है तेरे कूचे में , हम झुकाये हुए सर जाते हैं !
अब आना का भी हमें पास नहीं , वो बुलाते नहीं पर जाते हैं
शामे ग़म तुझसे जो डर जाते हैं , सब गुजर जाये तो घर जाते हैं
वक्ते रुक्सत उन्हें रुकसत करने , हम भी तहते नज़र जाते हैं
याद करते नहीं जिस दिन तुझे हम, अपनी नजरो से उतर जाते हैं
वक्त से पूछ रहा है कोई , जख्म क्या वाकई भर जाते हैं
ज़िंदगी तेरे ताकुब में हम, इतना चलते हैं की मर जाते हैं
मुझको तनक़ीब भली लगती हैं , आप तो हद से गुजर जाते हैं
=—————————————————————ताहिर फ़राज़