शीर्षक – चिड़चिड़ापन
अब खुद ही पता नहीं कि मैं क्या ढूंढ रहा हुं ,
जैसे तूफानों की बस्ती में हवा ढूंढ रहा हुं ,
लगी आग दिल में ,क्यों,कब, कैसे पता नहीं
भड़क कर आग बूझ गई और मैं धुआं ढूंढ रहा हुं।
शाम में सुबह और सुबह में शाम ढूंढ रहा हुं
बात ये भी नहीं कि जिंदगी-ए-आराम ढूंढ रहा हूं
आंखे खुली रहती है और रातें बीत जाती है
शायद सुकून के साथ रहूं, वो काम ढूंढ रहा हुं
कुछ दिखता है सामने फिर ,अचानक गुम हो जाती है
कोई कुछ बोलता भी नहीं और काने सुन जाती है
धैर्य किसी तरह बांधता हूं खुद ही खुद से खुद को मैं
रो सकता नहीं क्यूंकि आंसु देखकर सबकी हंसी छूट जाती है
– संदीप किशोर